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Wednesday 7 October 2020

पुरुषोत्तम मास में नित्य पाठ मंत्र, पूजन नियम, ध्यान-चिंतन और समुद्रीय मन-मंथन

 पुरुषोत्तम मास में नित्य पाठ मंत्र, पूजन नियम, ध्यान-चिंतन और समुद्रीय मन-मंथन


पुरुषोत्तम मास में नित्य पाठ मंत्र, पूजन नियम, ध्यान-चिंतन और समुद्र मन-मंथन

पुरुषोत्तम मास में प्रतिदिन पुरुषोत्तम भगवान विष्णु को याद करते हैं। इनके अवतारों की कथाएँ श्रवण की जाती हैं। इनके पावन मंत्रों का जप, तप, दान, ध्यान, आदि कार्य किये जाते हैं। आइए इस पुरुषोत्तम मास के १६० वर्ष पश्चात प्राप्त मुहूर्त में अमृत तत्व की प्राप्ति करें, अपने समुद्र रूपी मन का करें मंथन। करें पंच तत्वों (पँचमहाभूतों) का शुद्धीकरण पाएँ विकारों से मुक्ति। भरपूर उपयोग हो इस मलमास का, मन के सारे मैल धो डालें।



# क्या करें ?

(पुरुषोत्तम मास में नित्य पाठ मंत्र)


~भगवान कृष्ण को रोज घी का दीपक लगाए रोज पीले फूल और पीली चीजें चढाए और हरि विष्णु कृष्ण राम नाम का जप करें।


~पीले रंग के वस्त्र धारण कर इन मंत्रों या एक का अधिकाधिक जप/पाठ करें-


१• ॐ नमः भगवते वासुदेवाय।


२• हे कृष्ण गोविंद हरी मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेवा।

३• गोवर्धनधरं वन्दे गोपालं गोपरूपिणम्।

गोकुलोत्सवमीशानं गोविन्दं गोपिकाप्रियम्।।


४• इस मास में अधिक से अधिक महामंत्र का जप करे।

~हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।


५• ॐ हौं जूं स: ॐ भूर्भुव: स्व: ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्व: भुव: भू: ॐ स: जूं हौं ॐ !!


६• "ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि।

तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।"


७• "ॐ विष्णवे नम:!"

८• "ॐ हूं विष्णवे नम:!"

९• "ॐ अं वासुदेवाय नम:!"

१०• "ॐ नारायणाय नम:!"


११• "ॐ नमो नारायण।

श्री मन नारायण नारायण हरि हरि।"


१२• श्री हरि विष्णु पंचरूप मंत्र -

"ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान।

यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।।"


१३• "शांता कारम भुजङ्ग शयनम पद्म नाभं सुरेशम।

विश्वाधारं गगनसद्र्श्यं मेघवर्णम शुभांगम।

लक्ष्मीकान्तं कमल नयनम योगिभिर्ध्यान नग्म्य्म।

वन्दे विष्णुम भवभयहरं सर्व लोकैकनाथम।।"


१४. श्रीलक्ष्मी विनायक मंत्र - "दन्ताभये चक्र दरो दधानं,

कराग्रगस्वर्णघटं त्रिनेत्रम्। धृताब्जया लिंगितमब्धिपुत्रया लक्ष्मी गणेशं कनकाभमीडे।।"


१५. धन-वैभव एवं संपन्नता मंत्र -

"ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि।

ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि।"


१६• पंचरूप मंत्र

ॐ अं वासुदेवाय नम:!

ॐ आं संकर्षणाय नम:!

ॐ अं प्रद्युम्नाय नम:!

ॐ अ: अनिरुद्धाय नम:!

ॐ नारायणाय नम:!


सुनें या खुद पढ़ें, मनन करें।


• श्रीविष्णु पुराण पाठ।

• श्री विष्णु सहस्त्र नामावली।

• भगवतगीता अध्याय-१५।

• श्रीमद्भागवत कथा (विशेष रूप से स्कंध-१०, अध्याय-१४)।

• भविष्य पुराण, श्री सूक्त, आदि।

• समुद्र मंथन, विष्णु अवतारों, भगवान राम एवं कृष्ण की कथाएँ।


# पुरुषोत्तम मास के पालन योग्य सामान्य नियम


१) हरे कृष्ण महामंत्र का जप करें और कृष्ण के रूपों, गुणों और भूतकाल पर ध्यान लगाएं। दैनिक जप अतिरिक्त राउंड: २०, २४, ३२ या ६४ माला।

२) एक महीने तक ब्रह्मचर्य रखें। (फर्श पर सोएं - वैकल्पिक)।

३) सूर्योदय से पहले दैनिक स्नान करें (एक पवित्र स्थान में, या महीने में कम से कम ३ दिन)।

४) फर्श पर बैठकर पत्तों की प्लेटों पर खाएं (वैकल्पिक)।

५) तेल में खाना पकाने या तेल को अपने शरीर पर रगड़ना नहीं। (वैकल्पिक)

६) सरसों के तेल का खाना या उबटन नहीं। (वैकल्पिक)

७) आहार: सात्विक भोजन ही खाएं। सूर्यास्त या दोपहर के बाद एक दिन (वैकल्पिक) खाने के लिए सबसे अच्छा।

८) बाल या नाखून काटना (वैकल्पिक) नहीं।

९) पूरे महीने शांतिपूर्ण और सच्चा रहने का संकल्प लें।

१०) इस व्रत का पालन करने वाले किसी भी भक्त, ब्राह्मण, संत, गाय, साष्टांग लोग या ईश निंदा न करें।

११) प्रतिदिन भगवान श्रीकृष्ण और वैष्णव को दंडवत अर्पित करें।

१२) प्रतिदिन अर्पित करें और तुलसी देवी के चारों ओर परिक्रमा करें।

१३) मंदिर के चारों ओर दैनिक परिक्रमा करें (४ बार)।

१४) रोज राधा-कृष्ण देवताओं या चित्र को घी का दीपक अर्पित करें।

१५) रोज़ राधा-कृष्ण को गुलाब, कमल के फूल और तुलसी के पत्ते जितने चाहे चढ़ाएँ।

१६) राधा और कृष्ण को अपनी क्षमताओं के अनुसार भक्तिपूर्ण तपस्या करके प्रसन्न करने की पूरी कोशिश करें।


# ध्यान, मनन, चिंतन


१) भगवान विष्णु के कृष्ण रूप का ध्यान।

२) समुद्र मंथन पर मनन।

३) विष्णु के चौबीस अवतार कथाओं का चिंतन।


# चिंतन करें- समुद्र मंथन से क्या निकला, किसको क्या मिला? हमारा कर्तव्य ??


समुद्र मंथन से चौदह रत्न निकले- ५ कमेंद्रियां, ५ जननेन्द्रियां तथा ४ अन्य (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार)। इन सभी पर नियंत्रण रखेंगे तभी परमात्म तत्व मिलेंगे, अमृत वर्षा होगी।


१ • हलाहल (विष) - संसार हित के लिए शिव ने पिया, कंठ में ही रखा। हम भी विष रूपी विकारों को अपने कंठ में रखकर शांत करें, दूसरों को इसकी भयावह अग्नि से बचायें। इसके लिए सर्वोत्तम है ध्यान साधना। किसी भी योग्य पद्धति को प्रामाणित गुरु के सानिध्य में दृढ़ता पूर्वक अपनाएं। अमृत (परमात्मा) हर इंसान के अंदर ही स्थित है। अगर हमें इस अमृत-तत्व पाने की इच्छा है तो हम अपने मन को मथेंगे तो सबसे पहले बुरे विचार ही बाहर निकलेंगे। यही बुरे विचार विष है। इन बुरे विचारों सहित सभी विकार परमात्मा को समर्पित कर इनसे मुक्त हो जाएँ। इससे मन निर्मल हो जाएगा।


२ • कामधेनु (निर्मल मन)- कामधेनु अग्निहोत्र (यज्ञ) की सामग्री उत्पन्न करने वाली थी। इसलिए ब्रह्मवादी ऋषियों ने उसे ग्रहण कर लिया। इन ऋषियों की तरह हम भी इसे ग्रहण करने के अधिकारी बनें। मन के सारे विकारों को यज्ञ कुंड में भस्म कर दें। जब मन से विकार रूपी विष निकल जाते हैं तो मन निर्मल हो जाता है और ईश्वर तक पहुंचना आसान हो जाता है। परमात्मा को पाने के लिए स्वच्छ- निर्मल- निष्कपट- प्रेम सद्भावना से ओतप्रोत मन चाहिए।


३ • उच्चैश्रवा घोड़ा (चंचल मन)- इस सफेद रंग के घोड़े को असुरों के राजा बलि ने अपने पास रख लिया था। यह घोड़ा चंचल मन रूपी आसुरी वृत्ति है। इसे सतत अभ्यास पूर्वक वश में करें, इसपर लगाम कसें।


४ • ऐरावत हाथी (बुद्धि-विकार)- इस ऐरावत हाथी के चार बड़े-बड़े दांत लोभ, मोह, वासना और क्रोध के प्रतीक हैं। इन दांतों की चमक कैलाश पर्वत से भी अधिक थी। इसे देवराज इंद्र ने रख लिया। इस पर चमकदार शुद्ध, शांत व निर्मल बुद्धि से पाएँ काबू।


५ • कौस्तुभ मणि (भक्ति)- इसे भगवान विष्णु ने अपने ह्रदय पर धारण कर लिया। मन से विकार निकल जाने पर मात्र भगवत भक्ति ही शेष रह जाती है। यही भक्ति भगवान ग्रहण करते हैं।


६ • कल्पवृक्ष (हमारी अनगिनत इच्छाएं)- इसे देवताओं ने स्वर्ग में स्थापित कर दिया। हम इन इच्छाओं की पूर्ति नहीं, इन्हें मिटाने का यत्न करें। इनके मिटने पर ही परमतत्व प्राप्त होता है।


७ • रंभा अप्सरा (मन में छिपी वासनाएं)- पुराणों में दृष्टांत भरे पड़े हैं कि जब कोई किसी विशेष उद्देश्य में लगा होता है, तब इंद्र की इंद्रिय रूपी वासना-शक्तियां मन विचलित करने का प्रयास करती हैं। उस स्थिति में इस चंचल मन पर नियंत्रण ही उन्हें बचाता है। संयम नियम, दृढ़ निश्चय के साथ भगवत भक्ति से ही यह संभव हो जाता है।


८ • लक्ष्मी (सांसारिक धन-धान्य, सुख-वैभव, ऐश्वर्य, आदि)-

इनके प्रति आकर्षण का पूर्णतः त्याग करना होगा। इन पर मात्र भगवान विष्णु का ही अधिकार है, हमारा नहीं। वही विष्णु (सत्य) हमारे लक्ष्य हैं। जब इनकी कृपा बरसेगी तभी हमारे ग्रहण करने योग्य होगी। ये सांसारिक आकर्षक, सुख-सुबिधाएँ हमें अपनी ओर खींचती हैं, परन्तु हमें उस ओर ध्यान न देकर मात्र एक परमात्म भक्ति में ही ध्यान केंद्रित करना होगा।


९ • वारुणी देवी (सांसारिक मदिरा, नशा)- जिस पर दानवों का अधिकार है, देवों का नहीं। अमृत तत्व को पाने हेतु इन सभी प्रकार के नशों से पूर्णतः मुक्त होने की ज़रूरत है।


१० • चन्द्रमा (शीतलता)- साधक को चंद्रमा सी शीतलता प्राप्त हो जाती है, जब उसका मन बुरे ऋणात्मक विचारों, लालच, क्रोध, वासना, नशा, आदि विकारों से मुक्त हो जाता है।


११ • पारिजात वृक्ष- मन के रोम रोम में व्याप्त असीम शांति- हमारी साधना में इसका भरपूर उपयोग हो। यह परमशान्ति दे।


१२ • पांचजन्य शंख- ईश्वरीय स्वर (नाद)- इस समय तक परमात्मा के निकट पहुँचने की शुभ सूचना मिलने लग जाती है।


१३ • भगवान धन्वन्तरि (निरोगी तन- निर्मल मन)- जब आपका निर्मल मन, निरोगी तन होगा तभी परमात्मा विदित होंगे और अमृत कलश लेकर पधारेंगे।


१४ • अमृत कलश (परमात्म तत्व)- जब साधना की सीढ़ियां चढ़ते हुए हम इस अंतिम अवस्था पर पहुँचते हैं, तब हमारा निर्मल चित्त उस परम् तत्व अमृत को ग्रहण करने की योग्यता हासिल कर लेता है। इस समय अमृत उपलब्ध हो जाता है। इस समय हमारी अंतर्वृत्तियों के मध्य अंतर्द्वंद्व होना स्वाभाविक है, परंतु हमें इसके मोहिनी रूप में नहीं उलझना है। सब कुछ उस परमात्मतत्व पर ही छोड़ देना है, तभी कल्याण होगा।



# करें पंचतत्वों का संरक्षण, इससे होगा कुंडलिनी शक्ति जागरण


सनातन धर्म के अनुसार प्रत्येक जीव पंचमहाभूतों से मिलकर बना है। इन पंचमहाभूतों में जल, अग्नि, आकाश, वायु और पृथ्वी सम्मिलित हैं। अपनी प्रकृति के अनुरूप ही ये पांचों तत्व प्रत्येक जीव की प्रकृति न्यूनाधिक रूप से निश्चित करते हैं। अधिकमास में समस्त धार्मिक कृत्यों, चिंतन- मनन, ध्यान, योग आदि के माध्यम से साधक अपने शरीर में समाहित इन पांचों तत्वों में संतुलन स्थापित करने का प्रयास करता है। इस पूरे मास में अपने धार्मिक और आध्यात्मिक प्रयासों से प्रत्येक व्यक्ति अपनी भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति और निर्मलता के लिए उद्यत होता है। इस तरह अधिकमास के दौरान किए गए प्रयासों से व्यक्ति हर तीन साल में स्वयं को बाहर से स्वच्छ कर परम निर्मलता को प्राप्त कर नई उर्जा से भर जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस दौरान किए गए प्रयासों से समस्त कुंडली दोषों का भी निराकरण हो जाता है। पँचमहाभूतों के संरक्षण संवर्धन, नियमित ध्यान साधना के फलस्वरूप कुंडलिनी शक्ति जागरण भी हो सकता है।